20141007

चींटे ने ताटा रे, ताटा




एक राजा था। उसके तीन रानियां थीं। राजा का नसीब कि तीनों तोतली थीं। राजा ने चौथी रानी से ब्याह करने की बात सोची। अच्छा घर देखकर राजा ने सगाई कर ली। कन्या की तारीफ़ करते हुए किसी ने राजा से कहा था कि कन्या अच्छी रूपवती है, और बहुत अच्छे स्वभाव की है। राजा के मन में ब्याह की खुशी समाती नहीं थी।

राजा विवाह करने निकला। कन्या तोतली थी, लेकिन कन्या के मां-बाप बड़े चंट थे। उन्होंने कन्या को पहले से ही सिखा रखा था कि राजा कुछ भी क्यों न कहे, उसे एक शब्द भी बोलना नहीं है। राजा मन-ही-मन खुश हो रहे थे कि रानी मीठी-मीठी बातें करके उनका अच्छा मनोरंजन करेगी।

पर नई रानी तो गूंगी बनकर खड़ी रही। राजा ने बहुत चाहा कि रानी बोले, पर रानी क्यों बोलने लगी? उसने तो जैसे अपने होंठ सी लिए थे। राजा मन-ही-मन बोला, ‘यह तो कुएं में से निकलकर खाई में गिरने जैसा हुआ। तोतली को छोड़कर बोलती को लेने गये, तो यह गूंगी पुतली पल्ले पड़ी।’ राजा बहुत निराश हो गया।

एक दिन यह चौथी रानी बाड़े में उपले लेने गई। वहां एक चींटे ने उसे इतने ज़ोर से काटा कि रानी एकदम, चीख उठी, "मां, मुझे चींटे ने ताटा है,

चींटे ने।" राजा अपने झरोखे में बैठे थे। उन्होंने यह सुना। वह समझ गये कि चौथी रानी भी तोतली है।

राजा ने यह बात छिपाकर रखी थी कि उसकी चारों रानियां तोतली हैं। स्वयं अपनी ओर से राजा ने किसी को कुछ कहा नहीं था। लेकिन दीवान के मन में कुछ शंका पैदा हो गया। ठीक जानकारी पाने के लिए दीवान ने राजा से अकेले में पूछा, "राजाजी, गांव के लोग कहते हैं कि आपकी सब रानियां तोतली हैं। क्या यह सच है?"

राजा ने कहा, "दीवानजी! आपकी बात बिलकुल झूठी है।"

दीवान बोले, "आप मुझे भोजन के लिए न्यौते तो मैं साबित कर दूंगा।"

इस पर राजा ने दीवान को अपने महल में भोजन के लिए न्यौता। सब रानियों से कहा गया था कि कोई कुछ भी न बोले। राजा और दीवान दोनों आमने-सामने भोजन करने बैठे। तरह-तरह की रसोई बनाई गई थी। बड़ियां भी बनी हुई थीं।

दीवान ने बहुत कोशिश की कि रानियां कुछ बोलें, पर एक भी रानी बोली नहीं। आखिर दीवान थक गए, लेकिन इसी बीच उनको एक तरकीब सूझी। बड़ियां बहुत ही बढ़िया बनी थीं। बड़ी खाते-खाते दीवान ने उनकी खूब तारीफ शुरू कर दी। जब बड़ियों की बहुत तारीफ़ हुई, तो रानियां मन-ही-मन मारे खुशी के फूल उठीं। इस मौक़े का फ़ायदा उठाकर दीवान ने पूछा, "ये बड़ियां किसने तली हैं?"

इस पर एक रानी बोली, "ये बइयां तो मैंने तइयां" (ये बड़ियां तो मैंने तली हैं)।

राजा के मना करने पर भी एक रानी बोल उठी ,थी, इसीलिए दूसरी ने सयानी बनकर उससे कहा, "मना तरने पर भी बोई त्यों?" (मना करने पर भी बोली क्यों)?

तीसरी रानी ने सोचा कि यह तो बहुत ही बुरा हुआ। राजा ने साफ़-

साफ़ कहा था कि कोई बोलना मत, फिर भी ये दो बोल उठीं! उसके मन में थोड़ा गुस्सा भी आया, और कुछ अधिक सयानी बनकर उलाहने-भरी आवाज़ में उसने कहा, "ये बोई तो बोई, पर आप त्यों बोई?" (ये बोलीं तो बोलीं, पर आप क्यों बोलीं?)

चौथी रानी ने सोचा कि ये तीनों रानियां मूर्ख हैं। राजा ने मना किया था, फिर भी ये बोलीं और दीवानजी को सब पता चल गया। उसके मन में थोड़ा अभिमान भी आ गया। दीवानजी को उसके भेद का पता नही चला, यह सोचकर वह मन-ही-मन खुश हो उठी, और खुशी-ही-खुशी में वह बोली, "मै तो बोई बी नहीं और चाई बी नहीं!"(मैं तो बोली भी नहीं और चाली भी नहीं)। सुनकर राजा और दीवान दोनों खिलखिला कर हंस पड़े।

आगे-आगे ब्राह्मण




एक था ब्राह्मण और एक था बाबा। दोनों एक साथ यात्रा पर चले। गरमी का मौसम था। ऐन दोपहर का समय। दोनों को प्यास लगी, पर आसपास कहीं पानी था नहीं। भूख भी लगी थी। भूख-प्यास के बारे में सोचते-सोचते दोनों आगे बढ़े। रास्ते में एक बनिया मिला। बनिया भी भूखा-प्यासा था।

तीनों ने मिलकर तय किया कि चलें और कुछ मेहनत करें। जो भी मिल जाये, बराबरी से बाट लें। चलते-चलते रास्ते में गन्ने का एक खेत मिला। पहले ब्राह्मण खेत में पहुंचा और बोला, "नारायण, नारायण!"

गन्ने वाले किसान ने कहा, "पता नहीं, ये बम्मन-फम्मन कहां से चले आते हैं? यहां कोई भण्डार भरा है कि देते ही चले जायं!"

ब्राह्मण की टेर खाली गई और वह लौट आया।

बाद में बाबाजी खेत में पहुंचकर बोले, "अलख निरंजन! अलख निरंजन!" सुनकर किसान बोला, "अरे, इन बाबा-बैरागियों की तो कोई गिनती ही नहीं रही! किन-किन को दें और कितना दें!" बाबाजी भी खिसियाकर

लौट आए। अब बनिये की बारी आई। बनिया गन्ने के खेत में पहुंचा और किसान ने पूछा, "कहिए, पटेलबाबा! गुड़ बिकाऊ है?"

किसान बोला, "आइए, सेठजी! कितना गुड़ लेना है?"

बनिये ने कहा, "यही कोई सौ मन ले लेंगे।"

किसान बोला, "आइए, आइए, हम भाव तय कर लें।"

किसान और सेठ ने मिलकर भाव तय कर लिया और गुड़ तुलवाने का दिन भी ठहरा लिया। सबकुछ निपटा देने के बाद बनिये ने विदा ली। लेकिन कुछ ही देर बाद बनिया लौटा और बोला, "पटेलबाबा! यह जो सौदा तय हुआ, इसका कुछ बयाना तो दो!"

पटेल ने बीस बढ़िया गन्ने उखाड़कर बनिये को सौंप दिए। अब बंटवारे का काम शुरू हुआ। सबको बराबर-बराबर तो मिलना ही चाहिए।

लेकिन बनिये ने एक तरकीब सोच ली थी। वह अपने-आप बांटने बैठा। कुछ सोचने का-सा दिखावा करके बनिये ने कहा, "सुनो भैया! शास्त्र में लिखा है कि आगे-आगे ब्राह्मण। इसलिए ब्राह्मण को तो हमें आगे का ही हिस्सा देना चाहिए।"

यह कहकर बीसों गन्नों का ऊपर वाला हिस्सा काटकर ब्राह्मण को सौंप दिया। ब्राह्मण ने अपना हिस्सा खुशी-खुशी ले लिया।

फिर बनिये ने कहा, "नन्द सो कन्द! शास्त्र में कहा है कि बनिये को बीच का हिस्सा देना चाहिए।"

यह कहकर गन्नों के बीच वाले टुकड़े बनिये ने रख लिये।

अब गन्नों का निचला हिस्सा बचा।

बनिये ने कहा, "दाढ़ी सो फन्द! शास्त्र का वचन है कि बाबाजी को तो जड़ वाला हिस्सा ही देना चाहिए।"

बनिये ने बीच का बढ़िया हिस्सा अपने लिए रख लिया और ब्राह्मण को और बाबाजी को भी खुश कर दिया।

सब खुश होकर अपने-अपने घर चले गए।                            (हिन्दी विकिपीडिया )